ATN: साभार BBCहिंदी
निक थोर्प
बीबीसी संवाददाता
यूरोप के कुछ नेताओंपर यह आरोप लग रहा है कि वे कोरोना वायरस की महामारी का इस्तेमाल अपने ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ों को दबाने और सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने में कर रहे हैं
सोशल मीडिया पोस्ट्स के लिए तुर्की ने सैकड़ों लोगों को गिरफ़्तार कर लिया है. रूस फ़ेक न्यूज़ के तौर पर मानी जाने वाली किसी भी चीज़ के लिए लोगों को जेल भेजने की धमकी दे रहा है. पोलैंड में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ता नज़र आ रहा है और हंगरी में इसकी हालत ख़स्ता हो गई है.
बीबीसी संवाददाताओं ने इन हालात का आकलन किया है और यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश की है कि क्या सरकारें कोरोना वायरस का फ़ायदा सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने में कर रही हैं.
हंगरीः संसद की 'आत्महत्या' ने ओर्बान को दीं असाधारण शक्तियां
हंगरी के ताक़तवर प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान पर देश-विदेश में आरोप लग रहे हैं कि वह संकट के इस वक़्त में देश को एकजुट करने की बजाय कोरोना वायरस का इस्तेमाल ज़्यादा से ज़्यादा शक्तियां अपने हाथ में लेने के लिए कर रहे हैं.
11 मार्च को ओर्बान की फिडेज़ सरकार (हंगेरियन सिविक अलायंस- हंगरी की राष्ट्रवादी-रूढ़िवादी, दक्षिणपंथी पार्टी) ने ख़तरे के हालात का ऐलान कर दिया. इस तरह से सरकार को इस महामारी से निपटने के लिए अहम वक़्त मिल गया.
लेकिन, बाद में सरकार ने संसद में अपने बहुमत का इस्तेमाल अपनी सरकार को असीमित वक़्त के लिए बनाए रखने के लिए किया. ऐसे में ओर्बान को अब ताक़त मिल गई है कि वह जब तक चाहें तब तक डिक्री (न्यायिक आदेशों) के ज़रिए शासन कर सकते हैं. यह ओर्बान के विवेक पर होगा कि वह कब यह मानते हैं कि ख़तरा अब ख़त्म हो गया है.
आलोचकों का कहना है कि यह हंगरी में लोकतंत्र की समाप्ति है. हालांकि, जस्टिस मिनिस्टर ज़ोर देते हैं कि यह ऑथराइजेशन एक्ट (जिसके जरिए सरकार को असीमित शक्तियां प्रदान की गई हैं) इमर्जेंसी के ख़त्म होने के साथ ही समाप्त हो जाएगा. वह यह भी कहते हैं कि यह एक्ट ज़रूरी और उचित है.
क्या यह लोकतंत्र का अंत है? संवैधानिक क़ानून विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर ज़ोल्टन ज़ेंटे चेतावनी देते हैं कि सरकार आसानी से इस महामारी का इस्तेमाल असाधारण शक्तियां अपने हाथ में समेटने में कर सकती है.
वह कहते हैं कि चूंकि सरकार को यह निर्णय करने का विशेष अधिकार मिल गया है कि वह यह तय करेगी कि ख़तरे के हालात को कब ख़त्म करना है, ऐसे में संसद ने सरकार के ऊपर से नियंत्रण के अपने अधिकार को ख़त्म कर वास्तव में 'आत्महत्या' कर ली है.
सैद्धांतिक रूप से विक्टर ओर्बान की शक्तियों पर अभी भी तीन तरीक़े से लगाम लगाई जा सकती हैः
- महामारी की वजह से रुकने तक संसद का सत्र जारी रहे
- संवैधानिक कोर्ट अभी भी कामकाज करता रहे
- 2022 में आम चुनाव कराए जाएं
लेकिन, ओर्बान की फिडेज़ पार्टी के पास संसद में बहुमत है और सभी उपचुनाव और जनमत संग्रह इमर्जेंसी के खत्म होने तक के लिए टाल दिए गए हैं.
संवैधानिक कोर्ट पहले से ही ओर्बान के पसंदीदा लोगों से भरा हुआ है, लेकिन प्रधानमंत्री की राह में मौजूद एकमात्र कांटा यहां की स्वतंत्र जुडिशरी है.
सत्ताधारी पार्टी को 2020 के अंत में सुप्रीम कोर्ट के नए प्रेसिडेंट को नियुक्त करने के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत पड़ेगी. अगर ओर्बान इसमें जीत जाते हैं तो उनकी शक्तियां तकरीबन अपने चरम पर पहुंच जाएंगी.
तुर्कीः अर्दोआन के लिए 'बड़ा मौक़ा
ओर्ला गुएरिन
बीबीसी संवाददाता, इस्तांबुल
तुर्की के जुझारू नेता रेचेप तैय्यप अर्दोआन को सत्ता पर ख़ुद को और मज़बूती से काबिज करने के लिए कोरोना वायरस की महामारी की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वह पहले से ही काफ़ी आरामदायक स्थिति में हैं. मानवाधिकारों के लिए लड़ने वालों की यह राय है.
तुर्की में ह्यूमन राइट्स वॉच की डायरेक्टर एमा सिनक्लेयर-वेब कहती हैं, "यहां सत्ता का इतना केंद्रीकृत तंत्र है कि किसी को और ज्यादा ताक़त हासिल करने की ज़रूरत ही नहीं है."
हालांकि, वह कहती हैं कि सोशल मीडिया कंपनियों पर लगाम कसने के प्रस्तावों के सहारे माहौल को परखने की मौक़ापरस्त कोशिश हो रही है.
वायरस के असर को रोकने के लिए आर्थिक उपायों को लेकर लाए गए एक बिल में इन्हें 'गहरे तक दफ़्न' कर दिया गया है.
वह कहती हैं कि इसका मक़सद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को एक तरह से सरकारी कंट्रोल और सेंसरशिप के अधीन लाना है. हालांकि, इस ड्राफ्ट अमेंडमेंट (संशोधन) को अचानक से खारिज कर दिया गया, लेकिन सिनक्लेयर-वेब को लगता है कि भविष्य में इसकी फिर से वापसी हो सकती है.
तुर्की की सरकार संकट के वक़्त पर नैरेटिव को कंट्रोल करने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है. सोशल मीडिया पर कोविड-19 को लेकर डाली गई 'भड़काऊ पोस्ट्स' के लिए सैकड़ों लोगों को अरेस्ट किया जा चुका है.
कुछ डॉक्टर आवाज उठाने की जुर्रत कर चुके हैं. टर्किश मेडिकल एसोसिएशऩ के अली सर्केज़ोगलु कहते हैं,"दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि तथ्यों को छुपाने और एकपक्षीय सूचनाओं को खड़ा करने के जरिए इस देश को चलाया जा रहा है. डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों को पिछले 20 साल से इसकी आदत हो गई है."
वकील हुर्रेम सोनमेज़ की चिंता है कि कोरोना वायरस की महामारी राष्ट्रपति अर्दोआन के लिए एक मौका साबित हो रही है. सोनमेज़ कहती हैं,"इस महामारी के चलते समाज और विपक्ष कमजोर पड़ गए हैं." सोनमेज़ फ़्री स्पीच मामलों में लोगों का बचाव करती हैं.
"हर किसी का एक ही एजेंडा है और वह है वायरस. प्रायोरिटी जीवित रहने की है. इस बात की बड़ी चिंता है कि सरकार इस हालात का गलत इस्तेमाल कर सकती है."
रूसः पुतिन की महत्वाकांक्षा के आड़े आई महामारी
स्टीव रोज़नबर्ग
बीबीसी संवाददाता, मॉस्को
जनवरी में क्रेमलिन को लग रहा था कि वह सब-कुछ संभाल लेगा.
रूसी संविधान में फेरबदल होना है. इसके जरिए मूलरूप से व्लादिमीर पुतिन को दो बार और देश का राष्ट्रपति बने रहने का अधिकार मिल जाएगा. इसके बाद 22 अप्रैल को एक तयशुदा जीत के लिए 'राष्ट्रीय वोट' होना है जिसमें इन बदलावों पर मुहर लग जाएगी.
राष्ट्रपति के आलोचकों का कहना है कि यह एक 'संवैधानिक तख्तापटल' है, लेकिन यह होना तकरीबन तय है.
हालांकि, कोविड-19 ने हर चीज़ को होल्ड पर डाल दिया है. राष्ट्रपति पुतिन को चुनाव को टालना पड़ा. उन्हें ऐसा करना पड़ा क्योंकि एक महामारी के दौरान आप कैसे लोगों को वोट डालने के लिए घरों से बाहर बुला सकते हैं?
क्रेमलिन की दिक्क़त यह है कि अब कब और कैसे यह वोटिंग हो पाएगी. संविधान में बदलाव को समर्थन देना इस वक्त शायद किसी भी रूसी के दिमाग में नहीं होगा.
कोरोना वायरस लॉकडाउन से इकनॉमी कमजोर होना तय है. आशंका है कि कोरोना के चलते पैदा हुई मंदी दो साल तक जारी रह सकती है और इस वजह से लाखों नौकरियां खत्म हो सकती हैं.
अपनी रोज़ाना की दिक्कतों के लिए रूसियों की आदत स्थानीय अफ़सरों और प्रशासन को दोष देने ही है, लेकिन वे केंद्रीय नेतृत्व की बुराई नहीं करते. लेकिन, इतिहास से साबित होता है कि जब यहां के लोग गंभीर आर्थिक मुश्किल में होते हैं तो वे अपने देश के नेता पर अपना गुस्सा निकालते हैं. यह आर्थिक मुश्किल अब आती दिखाई दे रही है.
इससे ही यह भी समझ आ रहा है कि आखिर क्यों क्रेमलिन ने हाल में ही कोरोना वायरस से लड़ने की शक्तियां स्थानीय गवर्नरों के कंधे पर डाल दी हैं. इस तरीके से क्रेमलिन ने अपनी जवाबदेही को इनके साथ साझा कर लिया है.
सरकारी मीडिया समेत राष्ट्रपति पुतिन के समर्थक तर्क देते हैं कि एक राष्ट्रीय संकट के वक्त रूस को मजबूत, स्थायी नेतृत्व का होना बेहद जरूरी है. दूसरे शब्दों में पुतिन का शासन आगे के लिए भी जारी रहना चाहिए. दूसरी ओर, क्रेमलिन के आलोचक मान रहे हैं कि यह सब महामारी के दौरान देश पर अपनी पकड़ को और मजबूत करने की कोशिश है.
संसद में लाए गए एक नए कानून के जरिए कोरोना वायरस के बारे में कोई भी गलत सूचना फैलाने के लिए कड़े प्रावधान किए गए हैं. इसके मुताबिक, गलत सूचनाएं फैलाने के लिए 25,000 डॉलर का जुर्माना या पांच साल तक की कैद हो सकती है. इस बात की भी चिंताएं हैं कि क्वारंटीन को सख्ती से लागू करने के लिए सर्विलांस सिस्टम्स को लाया जा रहा है.
लॉकडाउन का यह भी मतलब है कि विपक्ष कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं कर सकता. वायरस को रोकने के लिए किसी भी एक जगह पर ज्यादा लोगों के इकट्ठे होने पर रोक है.
पोलैंडः कुर्सी के लिए क्या सरकार लोगों की जिंदगियों से खिलवाड़ कर रही है?
एडम ईस्टन
बीबीसी संवाददाता, वारसा
पोलैंड की सरकार में मौजूद पार्टी पर लोगों की जिंदगियों से खिलवाड़ करने के गंभीर आरोप लग रहे हैं. सरकार पर आरोप है कि वह इस महामारी के दौरान भी मई में होने वाले राष्ट्रपति के चुनावों से पीछे नहीं हट रही है और इस तरह से लोगों की जिंदगियों को जोखिम में डाल रही है.
सरकार के सहयोगी राष्ट्रपति एंड्रज़ेज डूडा को लग रहा है कि महामारी के दौरान उनकी लोकप्रियता और बढ़ेगी और वह आसानी से जीत जाएंगे.
सत्ताधारी लॉ एंड जस्टिस पार्टी का तर्क है कि चुनाव कराने के लिए वह संवैधानिक रूप से बाध्य है और लॉकडाउन में पोस्टल-ओनली वोट सबसे सुरक्षित विकल्प है.
यही उसका पसंदीदा विकल्प है. लेकिन, सरकार संविधान में एक बदलाव का भी समर्थन कर रही है. इस बदलाव के जरिए प्रेसिडेंट डूडा दो और साल, जब तक फिर से चुनाव नहीं हो सकते, के लिए देश के राष्ट्रपति बने रहेंगे.
विपक्ष का कहना है कि पोस्टल वोट में वोटरों, पोस्टल वर्कर्स और इलेक्शन स्टाफ के लिए जोखिम हो सकता है.
ईयू और पोलैंड के चुनाव आयोग ने भी वोटिंग को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की हैं.
विपक्षियों का कहना है कि चुनावों को टाले जाने का एक कानूनी तरीका है. नैचुरल डिजास्टर (प्राकृतिक आपदा) का ऐलान कर चुनावों को आगे के लिए टाला जा सकता है. ऐसा अगले 90 दिन के लिए किया जा सकता है. सरकार का कहना है कि असाधारण उपायों को करने के जरिए वह मुआवजों के दावों के लिए उत्तरदायी हो जाएगी.
मानव अधिकार समूहों का कहना है कि अगर मई में चुनाव होते हैं तो यह उचित नहीं होगा. ऐसा इस वजह से होगा क्योंकि कैंडिडेट्स प्रचार नहीं कर पाएंगे और मौजूदा राष्ट्रपति के पास सरकार की मदद करने और हेल्थकेयर वर्कर्स के पास जाने के जरिए बड़े पैमाने पर मीडिया कवरेज हासिल करने की सहूलियत होगी और वह जीत के लिहाज से ज्यादा मजबूत पोजिशन में होंगे.
अगर इलेक्शन टाल दिए जाते हैं तो पोलैंड एक मंदी की जद में होगा और डूडा के दोबारा चुनाव जीतने के आसार बड़े पैमाने पर कमजोर पड़ जाएंगे.
अगर विपक्षी कैंडिडेट जीतता है तो नए प्रेसिडेंट की वीटो करने की ताकत सरकार की अगले साढ़े तीन साल के लिए अपने कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की हैसियत पर रोक लगाने के लिए काफी होगी.
वारसा स्थित हेलसिंकी फाउंडेशन फ़ॉर ह्यूमन राइट्स की एक वकील मालगोर्ज़ाटा ज़ुलेका ने बीबीसी को बताया, "संकट से फायदा उठाने और सत्ता में बने रहने की यह तरकीब टेक्स्ट बुक्स में शामिल होनी चाहिए."
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